सुनो।
हमने तो कभी नहीं कहा,
की जिन मकानों में तुम बसे हो, वो हमने बनाये है।

हमने तो कभी नहीं जताया
की गाड़िया दौड़ती है, तुम्हारी जिन सड़को पर
वो हमने बिछाई है।

हमने तो कभी बोला ही नहीं
की जिस रिक्शा में तुम बैठते हो
वो हमारे फेफड़े खींचते है।

मैं जानता हूँ ढूँढ रहे हो मुझे
उस बंद नाली को खोलने के लिए।
वो फैक्ट्री की बेजान मशीनों के लिए।
रात को "जागते रहो" की आवाज़ के लिए।
गाड़ी पर जमी मिट्टी को धोने के लिए।

और मुझे पता है
बाबूजी को मेरे हाथ के ही,
गोभी के पराठे पसन्द है
तुम्हे बर्तन धोने से कितनी कोफ़्त है।

हम तो अब भी सोचते है -- फिर जाने क्यों दिया?

क्यूँ छोड़ा सड़को पर?
क्यूँ बस और ट्रैन बंद थी?
लाठियाँ क्यूँ चली हम पर?
क्यूँ चले हम हफ्तों तक -- भूखे प्यासे?
हमने तो कभी नहीं कहा की हम सिर्फ काम पर याद आते है?
हमने तो न स्कूल मांगे, न सड़क,
न गाड़िया, न पक्की छत।

फिर एक बार
इशारे से।
फ़ोन करके।
आवाज़ देकर।
रोका तो होता -- इस अनचाहे सफर से पहले?

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